
जल, कभी सागर, तो कभी बादल। कभी झरना, कभी टिप – टिप बरसना।
जल की प्रवृत्ति ही है स्वीकृति, जैसी प्रकृति वैसी आकृति ।
मनुष्य का तन जल तत्व से ही अधिकतम बना खड़ा है, परन्तु मन पूर्व निर्धारित धारणाओं के पहाड़ों सा अड़ा है ।
क्यों न मन भी तन सा बना लें, और तन और मन दोनों में सामंजस्य बैठा दें।
जैसे जल का बहाव है उन्मुक्त, वैसे ही मन को भी कर दें चिंताओं, आशंकाओं से मुक्त ।
ज्यों ज्यों जल परिवर्तित करता है प्रकृति के अनुसार अपने आकार, त्यों त्यों समय और काल के अंतर्गत हम भी अपनाएं नए विचार और यह जीवन करें साकार ।
कभी छांव है तो कभी धूप, प्रकृति और जीवन के भी हैं अनेको रूप । बस चलते रहें , ढलते रहें, और बहते रहें इसके अनुरूप ।